जरा सी जेब क्या फटी..
सिक्कों से ज्यादा,
रिश्ते गिर पडे..!
आशियाने बने भी तो कहाँ जनाब...
जमीनें महँगी हो चली है
और
दिल में लोग जगह नहीं देते.
जरा सा तुम बदल जाते
जरा सा हम बदल जाते...
मुमकिन था शायद ये रिश्ते
किसी साँचे में ढल जाते...
रिश्ते आजकल रोटी की तरह हो गए है
जरा सी आंच तेज क्या हुई जल भुनकर खाक हो जाते।
शर्त थी रिश्तों को बचाने की,
"और" यही वजह थी मेरे हार जाने की...
न इंसानो में होती हे ना नीम के पत्तो में ,
कडवाहट तो रिश्तो में होती है..
शीशा और रिश्ता दोनों ही बडे़ नाजुक होते हैं, दोनों मे सिर्फ एक ही फर्क है, शिशा गलती से टूट जाता है, और रिश्ता गलतफहमीयों से...
कौन किसे याद रखता है यहाँ ख़ाक हो जाने के बाद। कोयला भी कोयला नहीं रहता राख हो जाने के बाद।
हद से बढ़ जाये ताल्लुक़ तो गम मिलते है..
हम इसलिए हर शख्स से कम मिलते है...